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स नो॒ वेदो॑ अ॒मात्य॑म॒ग्नी र॑क्षतु वि॒श्वतः॑। उ॒तास्मान् पा॒त्वंह॑सः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa no vedo amātyam agnī rakṣatu viśvataḥ | utāsmān pātv aṁhasaḥ ||

पद पाठ

सः। नः॒। वेदः॑। अ॒मात्य॑म्। अ॒ग्निः। र॒क्ष॒तु॒। वि॒श्वतः॑। उ॒त। अ॒स्मान्। पा॒तु॒। अंह॑सः ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:15» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे दोनों परस्पर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह संन्यासी (अग्निः) के तुल्य (नः) हम गृहस्थों की वा (अमात्यम्) उत्तम मन्त्री की और (वेदः) धन की (विश्वतः) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे (उत) और (अस्मान्) हमारी (अंहसः) दुष्टाचरण वा अपराध से (पातु) रक्षा करे ॥३॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थ लोग ऐसी इच्छा करें कि संन्यासी जन हमको ऐसा उपदेश करे कि जिससे हम लोग धन के रक्षक हुए अधर्म के आचरण से पृथक् रहें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ परस्परं किं कुर्यातामित्याह ॥

अन्वय:

सोऽग्निरिव नोऽमात्यं वेदो विश्वतो रक्षतूताप्यस्मानंहसः पातु ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) यतिः (नः) अस्मान् गृहस्थान् (वेदः) धनम्। वेद इति धननाम। (निघं॰२.१०)। (अमात्यम्) अमात्येषु साधुम् (अग्निः) पावक इव (रक्षतु) (विश्वतः) सर्वतः (उत) अस्मान् (पातु) (अंहसः) दुष्टाचरणादपराधाद्वा ॥३॥
भावार्थभाषाः - गृहस्था एवमिच्छेयुर्यतिरस्मानेवमुपदिशेद्यतो वयं धनरक्षकाः सन्तोऽधर्माचरणात् पृथग्वसेम ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थांनी अशी इच्छा करावी की, संन्यासी लोकांनी आम्हाला असा उपदेश करावा की, आम्ही धनाचे रक्षक होऊन अधर्माच्या आचरणापासून पृथक राहावे. ॥ ३ ॥